
परमाणु अप्रसार संधि को लेकर देश में अभी भी बेहद अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है। इस मुद्दे पर भले ही वामपंथियों ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया है लेकिन कांग्रेस किसी भी कीमत पर इस संधि की पक्षधर है और इसके लिए वह हर बाधा को पार करने के लिए आतुर दिख रही है। एक तबका विकास के लिए परमाणु करार का हितैषी है तो एक बड़ा हिस्सा इसके दुष्परिणाम से विचलित। आखिर वामपंथी विरोध के पीछे का तर्कशास्त्र क्या है और क्या वाकई परमाणु ऊर्जा ही विकास का एकमात्र साधन बचा है या फिर और भी कोई रास्ता है। यदि कांग्रेस सरकार हर हालत में समझौता कर लेती है तो फिर देश और बाहर के राजनीतिक हालात क्या होंगे। इस परमाणु डील के दूरगामी परिणाम क्या होंगे और वह कौन सा मॉडल है जिसे वामपंथी चाहते हैं। इन्हीं मुद़दों पर तेज तर्रार कम्युनिस्ट पार्टी के युवा नेता अतुल अंजान से विस्तृत बातचीत कर परमाणु करार पर हो रही रार के बारे में जानने की कोशिश की गई।
ऊर्जा उत्पादन का सीधा रिश्ता विकास से है। किसी एक स्रोत से हमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं मिल सकती। प्रदूषण नियंत्रण और ग्लोबल वार्मिंग में कटौती के मद़देनजर परमाणु ऊर्जा का उपयोग जरूरी बताया जाता है। ऐसे में अगर भारत को अपनी मौजूदा औद्योगिक रफ्तार बनाए रखनी है तो उसे परमाणु ऊर्जा को अपनाना पड़ेगा। क्या आप विकास के लिए परमाणु ऊर्जा को जरूरी समझते हैं ?
विज्ञान और तकनीक के बढ़ते दायरे के चलते ऊर्जा की जरूरत से कोई समझदार व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता। लेकिन ऊर्जा के उत्पादन के स्रोतों के संबंध में विश्वव्यापी बहस चल रही है। जिस आणविक ऊर्जा की बात अमेरिका व यूरोप के लोग तीसरी दुनिया के देशों को प्रस्तावित कर रहे हैं उसी ऊर्जा के उत्पादन की प्रक्रिया से उत्पन्न कुप्रभाव पर गहरी बहस यूरोप के पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों और साधारण नागरिकों में चल रही है। शायद इसीलिए दुनिया के सर्वाधिक ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों का इस्तेमाल करने वाले अमेरिका में तेल व गैस का भरपूर दोहन किया जा रहा है और बीस वर्षों से अमेरिका में कोई नए आणविक ऊर्जा केंद्र स्थापित नहीं किए गए। फ्रांस एकमात्र यूरोप का अकेला देश है जहां साठ फीसदी से अधिक ऊर्जा का स्रोत आणविक ऊर्जा है। और वहां आणविक प्रयोगों से उत्पन्न होने वाले दुष्प्रभावों को सोचकर फ्रांसीसी जनता का एक बड़ा हिस्सा ऊर्जा के लिए गैर आणविक स्रोतों 'सोलर एनर्जी' के प्रयोगों पर अपनी सरकारों पर बल दे रहा है।
परमाणु ऊर्जा तक पहुंचने का रास्ता अमेरिका से होकर गुजरता है। एनपीटी पर हस्ताक्षर किए बिना कोई देश हमारे साथ परमाणु सहयोग को तैयार नहीं होगा। अलबत्ता अमेरिका अपने करार के जरिए ऐसा करने को तैयार है। लेकिन भारत में वामपंथी दल अमेरिका से परमाणु करार के विरोधी हैं। इस विरोध का मतलब परमाणु ऊर्जा की राह को हमेशा के लिए बंद करने जैसा नहीं?
अमेरिका द्वारा प्रतिपादित साम्राज्यवादी विस्तार के ऊपर आधारित परमाणु अप्रसार संधि का दस्तावेज एनपीटी तीसरी दुनिया के देशों के लिए भेदभावपूर्ण ही नहीं वरन अपनी सैन्य शक्ति के आधार पर दादागिरी दिखाने का दस्तावेज है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ में बोलते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एनपीटी पर भारत की ओर से हस्ताक्षर करने से इंकार किया था। उन्होंने अमेरिका से परमाणु प्रसार व परीक्षण पर 'ऊर्जा एवं सैन्य आवश्यकताओं सहित' रोक लगाने के लिए विश्व बिरादरी को आश्वस्त करने की मांग की थी और उनका यह दृष्टिकोण तीसरी दुनिया के देशों ने स्वीकार किया था जो आज भी प्रासंगिक है, और यही 'राजीव गांधी डॉक्टराइन' कहलाती है।
किसी देश के लिए उसकी आंतरिक, सामाजिक, विकासशील, वैज्ञानिक एवं स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परमाणु परीक्षण पर रोक लगाने या उसकी निगरानी करने के लिए अमेरिका व उसके सहयोगी साम्राज्यवादी देशों को निर्धारण करने का अंतिम फैसला करने का अधिकार कैसे प्राप्त हो जाता है। उन्हें किसने खलीफा बना दिया। दुनिया शांतिपूर्ण रहे, तनावमुक्त रहे, यह तो सभी देशों के जनगण की इच्छा है। अकेले अमेरिका व उसके सहयोगी देश मानवता के स्वघोषित पहरेदार कैसे बन सकते हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला, माहौल को गर्म करने वाला, प्रकृति के सामंजस्य को विचलित करने वाला और जनतंत्र की आड़ में देशों पर सैन्य हमला करने वाला अमेरिका सबसे ज्यादा कार्बन पैदा कर रहा है।
जब संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में मानवता को बचाने व प्राकृतिक माहौल को बेहतर बनाने, नदियों व पहाड़ों को सुरक्षित रखते हुए वायुमंडल को परिष्कृत करने के लिए और विश्व की खाद्य सुरक्षा को बरकरार रखने के लिए, कृषि उत्पादन पर नकारात्मक प्रभावों को रोकने के लिए दुनिया के 140 देश जापान में इकट्ठा होकर 'क्योटो प्रोटोकाल' का मसविदा तैयार करते हैं तो अमेरिका व उसके सहयोगी देश उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर देते हैं। उनका कहना है कि 'क्योटो प्रोटोकाल' से अमेरिका का विकास बाधित हो जाएगा। अपने निजी देशीय स्वार्थ के लिए अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन कर दुनिया व वायुमंडल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए क्या अमेरिका की सरकार नैतिक रूप से जिम्मेदार नहीं है। लाखों टन घातक बमों से अफगानिस्तान व इराक पर हमला कर अमेरिका ने मध्य एशिया, खाड़ी देशों सहित भारत के वातावरण को गर्म माहौल में तब्दील कर दिया है। इसके लक्षण भारत की जलवायु पर साफ दिखाई दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के 110 करोड़ लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक है और भारत के वामपंथ सहित संवेदनशील लोग अमेरिका से पूछ रहे हैं कि इस अन्याय के विरूद्व विरोध प्रकट करना क्या मानवता को बचाने की लड़ाई का हिस्सा नहीं है।
भारतीय वामपंथ और उसकी प्रतिनिधि कम्युनिस्ट पार्टी अमेरिकी जनता की विरोधी नहीं है बल्कि अमेरिकी सरकार की साम्राज्यवादी, विस्तारवादी एवं अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी हमलावर नीतियों की विरोधी हैं। हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिकी जनता भी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी अपनी सरकार की नीतियों के खिलाफ उठकर खड़ी होती है।
तीन चार वर्ष पूर्व 10 लाख अमेरिकी नर-नारियों ने वाशिंगटन व न्यूयार्क में प्रदर्शन कर मांग की थी कि दुनिया के अत्यंत पिछड़े देशों के ऊपर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक के लदे कर्जे माफ कर दिए जाने चाहिए। क्या अमेरिका के राष्ट्रपति ने चाहें वह किसी भी दल के हों अपनी ही जनता की इस तर्क पूर्ण, न्यायपूर्ण मांग स्वीकार- नहीं। यह वह प्रश्न हैं जिन पर ध्यान देना जरूरी है।
क्या भारत को परमाणु अप्रसार संधि में हस्ताक्षर करने चाहिए? यदि नहीं तो आपकी नजर में भारत के लिए परमाणु हथियार के विकल्प को खुला रखने की व्यावहारिक जरूरत क्या है
भारत को किसी भी स्तर पर गैर-बराबरी पर आधारित संधि पर हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए। तनाव रहित, शांतिपूर्ण, सह'अस्तित्व पर आधारित तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकारों पर आधारित विश्व स्थापना की ओर आगे बढ़ने को यह जरूरी है कि परमाणु संपन्न अमेरिका सहित पी-5 देश भविष्य में किसी भी प्रकार के परमाणु परीक्षण पर एकतरफा रोक की घोषणा करें। परमाणु सैनिक उपकरण के निर्माण पर तत्काल रोक लगाएं और परमाणु हथियारों को शनै: शनै: समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ें। अगर यह ऐलान होता है कि भारत को विश्व के अन्य देशों के साथ मिलकर परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। ऐसा नहीं होता तो यह कैसे मान लिया जाए कि भारत दुनिया पर दादागिरी कायम करने के लिए परमाणु सैन्य शक्ति का विकल्प खुला रखकर कुछ अनहोनी कर देगा।
भारत ने आज तक किसी देश पर हमला नहीं किया। अमेरिका ने तो पचासों देशों में एकतरफा सैन्य दखलंदाजी की, परमाणु हथियार चलाए। लाखों लोगों को मारा और इसके बावजूद भी वह विवेकवान परमाणु शक्ति देश होने का गौरव हासिल करने के लिए बेशर्मी से विश्व बिरदारी के सामने खड़ा हो जाता है। इन तथ्यों को रखने से सत्य की जांच हो जाती है। मात्र अमेरिकी विरोध मेरा मकसद नहीं।
आज दुनिया को देखें तो सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विकास के एक ही 'बाजार केंद्रित, अमेरिकी' मॉडल का बोलबाला है। भारत भी उसी राह पर चलता दिखाई देता है। इस मॉडल से जो संस्कृति निकलती है, उसके मुताबिक धरती के सारे संसाधन मनुष्य के लिए हैं और मनुष्य की भूख की कोई सीमा नजर नहीं आती है। क्या प्राकृतिक संसाधनों के 'प्रति व्यक्ति' इस्तेमाल की कोई सीमा होनी चाहिए। उपभोक्तावाद की वर्तमान दशा को देखते हुए क्या आपको गांधी की आज के संदर्भ में कोई राजनीति की सार्थकता महसूस होती है
विश्व के अधिकांश देशों में भूख गरीबी, अशिक्षा, अत्यंत सीमित स्वास्थ्य सुविधाएं आज के दौर में साफ दिखाई दे रही हैं तथाकथित शीत युद्व की समाप्ति के बाद ' एक ध्रुवीय विश्व' की सोच को लेकर अमेरिका व उसके सहभागी 'ग्लोबल विलेज' के लोकलुभावन नारे के तहत बाजारवाद की आड़ में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को स्थापित करने के महाअभियान में जुटे हैं। साम्राज्यवादी विचारधारा से लैस अर्थशास्त्री अब तीसरी दुनिया के देशों के बाजार पर अपने उत्पादित माल का कब्जा कराने, उनके जल-जंगल-जमीन सहित प्राकृतिक संसाधनों खदान से लेकर खेती तक हथियाने के लिए नई नीतियां पेश कर रहे हैं। अफ्रीका के देशों के सोना से लेकर मैगजीन तक लूट कर ले जा रही अमेरिका सहित यूरोप की बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन देशों के जन-गण को कंगाल बना रही हैं। कंगाली बढ़ाने में साम्राज्यवादी देशों का अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी और कॉरपोरेट घरानों को कूटनीतिक व राजनीतिक संरक्षण ही नहीं है वरन् उनके हितों की रक्षा के लिए वह सैनिक कार्रवाई भी करती हैं। वहीं दूसरी ओर भूख व अकाल की स्थिति पैदा होने के लिए जिम्मेदार होने के बावजूद विश्व बिरादरी के सामने अपना मानवीय चेहरा दिखाने के लिए विश्व बैंक की ओर से कुछ डॉलर दान में देकर दानदाता का तमगा हासिल करने में जुटे हुए हैं। बीबीसी व सीएनएन व संचार माध्यम में यह फोटो भी दिखाए कि अकालग्रस्त बच्चे व माता को अमेरिकी व यूरोप के डॉक्टर कुछ बिस्कुट व ओस की बूंदें चटा रहे हैं। एक न्ययपरक 'विश्वसमाज' एवं 'विश्वग्राम' बनाने की दिशा में घृणित कार्रवाई मानवता के साथ अन्याय ही नहीं जुगाली भी है।
पूंजीवादी के और आज के दौर के आक्रामक पूंजीवाद के द्वारा मानवीय संवेदनाओं से लैस विश्व नागरिक बनाने की दिशा में आ रही प्रलयंकारी नीतियों को बदलना होगा और इसे बदलने की दिशा में बुद्व की करूणा, लिंकन का साहस, मार्क्स के वैज्ञानिक समाजवाद, लेनिन की दृढ़ता, मार्टिन लूथर किंग की सामाजिकता और गांधी की अहिंसा व लोककल्याण की नीति के विशाल सामंजस्य की आवश्यकता आज के दौर की प्राथमिकता होनी चाहिए।
भारत और चीन की मौजूदा आर्थिक वृद्धि से कई पश्चिमी अर्थशास्त्री चिंतित हैं। उनका तर्क है कि अमेरिका की रहा पर चल रहे इन देशों की आधी आबादी भी वहां के मध्यमवर्ग की तरह लगे तो उनकी जरूरतें पूरी करने को दो धरतियां भी कम पड़ेंगी। पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता को देखते हुए उनकी बात में दम दिखाई पड़ता है। आप क्या कहेंगे?
एक सभ्य विश्वग्राम में सिर्फ न्यायसंगत होने की गुहार लगाना और मानवीय अधिकारों की चर्चा करने से बात नहीं बनेगी। इस धरती पर समुद्र और इसके नीचे आसमान और वायुमंडल हम सबकी साझी संपत्ति है। विज्ञान और तकनीक की विकसित व्यवस्था ने देशज सीमाएं तोड़ दी हैं। वायु के प्रभाव पर रोक नहीं लगाई जा सकती, लेकिन अपने देश की सीमा पर खड़े होकर दूसरे देश में जाती वायु को बैक्टीरिया से प्रभावित कर उस देश के अंदर जाने वाली हवा से लोगों के जीवन को नारकीय बनाया जा सकता है। मानवता के विकास के इतिहास ने हमें बहुत कुछ सिखा दिया है। तार्किक भी बना दिया है, लेकिन प्राकृतिक संपदाओं का अगर न्यायिक वितरण नहीं हुआ तो अशांति बनी ही रहेगी। हम न्यायिक ही न हों, बल्कि न्याय करते हुए दिखाई भी दें। चीन व भारत आज के दौर में सेवा क्षेत्र के विस्तार से चलते विश्व विकास की सामान्य गति से थोड़ा आगे दिखाई दे रहे हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इन्हीं दो देशों में 240 करोड़ की आबादी रहती है, अर्थात आधी विश्व आबादी। विकास के कुछ पिरामिड इन देशों में खड़े हुए हैं। अच्छी बात है। स्वागत योग्य है। इन्हें साम्राज्यवाद लूट-खसोट से आजाद हुए अभी साठ साल ही हुए हैं। दोनों देशों में अलग-अलग तरह का जनतंत्र है। दोनों देश सैकड़ों वर्ष साम्राज्यवाद गुलामी में जीते रहे हैं। दोनों देशों में जन-गण-की भावनाओं के आधार पर दो अलग-अलग तरह की सामाजिक क्रांतियां हुईं। आर्थिक रूपांतरण की प्रक्रिया में दोनों ही देशों में कुछ समान और कुछ अपने अनुभवों पर आधारित प्रयोग चल रहे हैं। विकास की दर की तेजी के दौर के बावजूद इन देशों की अस्सी फीसदी जनता अभी भी हाशिए पर खड़ी है। आर्थिक विकास की यात्रा में समाज के दस से पन्द्रह फीसदी ही लोग सुख-सुविधा संपन्न होकर गुजर-बसर करें और बाकी अधिकांश आस और चाह की हसरत में बैठे और खड़े रहें तो यह आर्थिक विकास कितना न्यायिक और मानवीय होगा
दोनों देशों के अंदर किसान, मजदूर, ग्रामीण महिला, नौजवानों के बीच काम करने वाली क्रांतिकारी रूपांतरण विचारधारा से लैस लोग अपने-अपने स्तर पर व्यापक आर्थिक बराबरी के संघर्ष में लगे हैं।
देश को 'सुपर पावर' बनाने के भारत के शासक वर्ग के सपने से आप कितना इत्तफाक रखते हैं। क्या भारत को महाशक्ति बनना चाहिए क्या एटमी समझौते से विश्व स्तर पर भारत की शक्ति और स्वायत्ता बढ़ेगी या वह अमेरिका की वैश्विक सत्ता का एक अंग बन जाएगा
भारत अपनी भौगोलिक और जनसंख्या की स्थिति से एक ऊर्जावान बड़ी शक्ति है। विश्व बंधुत्व, प्रेम, सौहार्द, जनतंत्र और शांतिप्रिय विश्व की अवधारणा के कारण भारत की आवाज महत्व रखती है। सुपरपावर का मेडल लटकाकर हम में एकस्ट्रा सुपरपावर बनने की ललक नहीं होनी चाहिए। हाशिए पर पड़े लोगों का बेहतर जीवन स्तर बनाने से हमारा जनतंत्र गरिमामय होगा। हम अपने देश को आगे ले जा पाएंगे। दुनिया के अन्य देशों के शोषित पीडि़त लोगों को संबल प्रदान करेंगे। उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने में योगदान दे सकते हैं। यह कहते हुए हम भारत को 'सुपर ह्यूमन पावर' बना सकते हैं। लेकिन यह आक्रामक पूंजीवादी नीतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट- खसोट की नीतियों पर चलने से नहीं होगा। अपने बाजार लुटेरों के हवाले कर हम अपने किसानों के कटोरों में थोड़े बहुत रखे चावलों को लुटवाने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। भारत एटमी शक्ति है। दो बार हम परमाणु परीक्षण कर चुके हैं, सारी दुनिया जानती है। भारत शांति व सह-अस्तित्व में विश्वास रखने वाला अपनी गतिविधियों से विश्व बिरादरी को सबूत देने वाला देश है। भारत की अपनी स्वतंत्र गुटनिरपेक्ष विदेश नीति रही है। हम समानता में विश्वास रखते हैं। पश्चिम के विचारकों, यूरोप के देशों तथा सबसे अधिक अमेरिका को दुनिया को यह बताना चाहिए कि जब शीतयुद्व समाप्त हो गया, सोवियत संघ का विघटन हो गया, ' वारसा पैक्ट' से देशों की सैन्य कमान विघटित हो गई तो 'नाटो' का विस्तार क्यों हो रहा है। कम्युनिस्टों का हौवा खड़ा करके अमेरिका व उसके सहयोगियों ने नाटों का गठन किया था और जवाब में सोवियत संघ ने वारसा पैक्ट बनाया था। आज नाटों को किससे खतरा है। सोवियत संघ तो रहा नहीं। आज नाटों में लगभग बाइस देशों से बढ़ाकर चालीस देशों को उसका हिस्सा बना लिया गया। क्या इन देशों की सेनाओं के संगठन नाटो को इसलिए बढ़ाया व चलाया जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों के हीरे व सोने के खान, लोहा, अभ्रक व एल्युमीनियम के खदान, इनकी जमीन व इन देशों के समुद्र पर आने वाले समय में कब्जा किया जाए। इनके प्राकृतिक तेल व गैस पर 'बलात्' कब्जा कर लिया जाए। अमेरिका व ब्रिटेन ने इसी इरादे से इराक को हथिया लिया। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार के जमाने में अमेरिका ने यहां तक प्रस्ताव दे दिया कि भारतीय फौज इराक में अमेरिका के साथ मिलकर लड़ें। कम्युनिस्ट पार्टी ने देशभर में व्यापक आंदोलन खड़ा किया और आखिरकार भारत की सरकार को इस प्रस्ताव से पीछे हटना पड़ा।
भारत-अमेरिकी परमाणु करार कहीं से भी भारतीय हित में नहीं है। इस करार के बाद सन् 2020 तक कहा जा रहा है कि भारत बीस हजार मेगावाट आणविक बिजली पैदा करेगा। वर्तमान में एक लाख चालीस हजार मेगावाट बिजली पैदा हो रही है। इसमें से मात्र चार हजार मेगावाट यानी तीन फीसदी आणविक ऊर्जा है। सन् 2020 तक भारत आठ लाख मेगावाट बिजली पैदा करेगा। यह ऊर्जा थर्मल, हाइड्रो व गैर पारंपरिक ऊर्जा क्षेत्र से आएगी। बीस हजार मेगवाट आणविक ऊर्जा सन् 2020 में संपूर्ण ऊर्जा का मात्र पांच फीसदी ही होगी।
आठ लाख हेक्टेयर खेती योग्य जमीन इन संयंत्रों में लगेगी। इसके लिए 11 लाख करोड़ रुपए खर्च होंगे। आणविक ऊर्जा केंद्रों के तीन मील के दायरों से गांव हटाए जाएंगे। यानी खेती भी नहीं होगी और जमीन बांझ हो जाएगी। 11 लाख करोड़ रुपए कौन देगा- विश्व बैंक। वह भी ऊंची ब्याज दर पर। दस मिलियन डॉलर के अमेरिका में बेकार पड़े रियेक्टर भारत को बेचे जाएंगे। रिएक्टर की आमदनी, विश्व बैंक की आमदनी, अमेरिका की आमदनी एक अच्छा व्यापार है।
आठ लाख हेक्टेयर जमीन खेती से हट जाएगी, खाद्यान्न की कमी होगी, खाद्य सुरक्षा भारत को प्रभावित होगी, फलस्वरूप भारत को अमेरिका से गेहूं मंगाना होगा। इस तरह से हम भरेंगे अमेरिका का खजाना। भारत का आणविक कचरा सुरक्षित फेंकने के लिए हर वर्ष तीन अरब डॉलर खर्च करने होंगे। आखिर कचरा फेकेंगे कहां। बर्मा में, नेपाल में, भूटान में, श्रीलंका या राजस्थान के रेत में। वास्तविकता में इस परमाणु संधि के द्वारा हाईडेक्ट-123 के द्वारा हमारी स्वतंत्र विदेश नीति को अमेरीकी की विदेश नीति के साथ गुत्थमगुत्था कर भारत को अमेरिका की विदेश नीति का हिस्सा बनाना है।
अगर नाभकीय समझौता यूपीए सरकार कर लेती है तो देश के भीतर और बाहर राजनीतिक स्थिति क्या होगी।
हमने यह पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि यदि यूपीए सरकार इस दिशा में कोई कदम बढ़ाती है तो वो हमारा समर्थन खो देगी और हुआ भी ऐसा ही। लेकिन हम अपने प्रयास में सफल रहे। सवाल यह भी जायज है कि वामपंथियों में इसमें इतनी देर क्यों की इसका सीधा सा जवाब यह है कि हम देश के भीतर इस मुद्दे पर एक बहस खड़ी करना चाहते थे। जिसमें हमें कामयाबी मिली। चाहे वह संसद हो या जनता दरबार हमने इस संधि के सभी पहलूओं को बेबाकी से रखा।
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