ग़ज़ल
दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं
ज़ख़्म कैसे भी हों कुछ रोज़ में भर जाते हैं
रास्ता रोके खड़ी है यही उलझन कब से
कोई पूछे तो कहें क्या कि किधर जाते हैं
छत की कडि़यों से उतरते हैं मिरे ख़्वाब मगर
मेरी दीवारों से टकरा के बिखर जाते हैं
नर्म अल्फ़ाज़, भली बातें, मुहज्ज़ब लहज़े
पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी
सर झुकाये हुए चुपचाप गुज़र जाते
शनिवार, 23 अगस्त 2008
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1 टिप्पणी:
जावेद साहब की और गजलें भी डालें। आपका प्रयास सराहनीय है
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