बुधवार, 20 अगस्त 2008






विजय किशोर मानव

नदी

मैं हो तो जाऊं नदी
लेकिन जहां-जहां होकर बहना है मुझे
किस-किस पड़ाव पर बंधना है मुझे
कोई बताए तो

हिंसक पशुओं की प्‍यास
सभ्‍य मनुष्‍यों की प्‍यास
और प्‍यासें कैसी-कैसी
छुएंगी मुझे
और क्‍या पता कि वे
जो आएंगे मुझ तक
सचमुच प्‍यासे ही होंगे
निकल चुका होगा
उनकी पसीजी हुई खाल से
क़तरा-क़तरा
पहले पिये पानी का
कौन-कौन रहेगा मुझमें
और कितनी तरह से
धंधोला जाएगा मुझे
मौतों के सिलसिले बहेंगे कैसे-कैसे
प्‍यास बुझाते मरेंगी मछलियां
नहीं बचेंगे घडि़याल
लाशों से पटते रहेंगे रेतीले पाट

कहां तक जाना होगा मुझे
कहां तक
प्‍यास और पानी तलाशती
नदी बनकर



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